बादलों की अभिव्यक्ति
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कालिख जो बादलों ने पी ली है,
रास बनकर, अभिव्यक्ति को अँधेरे से लपेटा है।
मगर हरा सबसे ज़्यादा हरा होकर हर हरे को हरा रहा है,
कालिख जो अंधे का जीवन है, क्या ये मृत्यु का सागर है?
एक नुक्कड़ पर चाय पीते, पानी की बूँदें, अंधे की चाय में गिरती है।
हवा चलती है, नीम की हरी पत्ती भी अंधे की चाय में गिरती है।
दूर एक घुग्गु, पेड़ पर बैठा देखता है।
“चाय तुम्हारी खराब हो गयी”
अँधा बोला, “अंधकार की चाय कड़वी है, अंधकार की चाय में पानी ज़्यादा पड़ा है।
मगर इसका स्वाद बादलों की कालिख से बना है।
आज बादल कुछ कह रहे है। सुनो!”
बादल गरजते है। छुप गयी रौशनी और अनुषा।
अगर कभी न दिखने वाली रौशनी, अंधकार हुई
तो कभी न दिखने वाला अंधकार, क्या रौशनी हुई?
अंधे की चाय मौसम से बनी है।
गीली मिटटी की खुशबु नाइट्रोजन से बनी है।
बेपाक घुग्गु अंधे के ऊपर हगता है.. फिर हँसता है.. फिर अपने बारे में सोचता है..
माफ़ी मांगता है.. फिरसे हँसता है.. और भूल जाता है।
बेपाक घुग्गु का यह सब महसूस करना क्या उसेे अंधे से ज़्यादा इंसान बनाता है?
कालिख जो बादलों ने पी ली है,
रास बनकर, अभिव्यक्ति को अँधेरे में लपेटा है।
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प्रेरणा का स्त्रोत
- कालिदास की कविता, मेघदूतम
- जब मेरे एक दोस्त ने मुझसे पुछा, “बाहर बादल देखे? बहुत अच्छे लग रहे है।”