गजानन माधव मुक्तिबोध — एक श्रद्धांजलि
“ओ मेरे आदर्शवादी मन,
ओ मेरे सिद्धान्तवादी मन,
अब तक क्या किया?
जीवन क्या जिया!!उदरम्भरि बन अनात्म बन गये,
भूतों की शादी में क़नात-से तन गये,
किसी व्यभिचारी के बन गये बिस्तर,दुःखों के दाग़ों को तमग़ों-सा पहना,
अपने ही ख़यालों में दिन-रात रहना,
असंग बुद्धि व अकेले में सहना,
ज़िन्दगी निष्क्रिय बन गयी तलघर,
अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया!!बहुत बहुत ज़्यादा लिया ,
दिया बहुत बहुत कम ;
मर गया देश , अरे , जीवित रह गए तुम !
कविता- अंधेरे में, गजानन मा मुक्तिबोध के चौथे भाग से।
अँधेरे में कविता को समझना बहुत कठिन है। लेकिन कविता के साथ मुक्तिबोध के ख्यालों के समंदर में बहना बहुत सरल। मुक्तिबोध आम कवियों के सामान कविता को जोड़ते नहीं थे। वे एक जुड़े हुए स्थान से ख्याल की शुरुआत करते है और फिर उसको बांटकर इतना तोड़ देते है कि व ख्याल आज़ाद होकर ज़िंदा हो जाता है। इस टूटती हुई सोच,और उसके बहिष्कार में हमें सार का आभास होता है। मुक्तिबोध की कविता एक सपने के जैसे भ्रम समझकर भुलाई जा सकती है मगर पढ़ते वक़्त, बिलकुल सच लगती है।और अगर उसका अर्थ मन तक पहुंच जाए तो कविता शायद कभी नहीं भुलाई जा सकती।’अँधेरे में’ लगभग ५० पन्नों और चार भागों में लिखी हुई है, और ये किसी महाकाव्य से कम नहीं है। मुख्य विवरण इस बात का है कि इसे आँख खोलकर पढ़न उतना ही महत्वपूर्ण है जितना आँख बंद कर।
मुक्तिबोध को पढ़कर कई मुश्किल सवाल मन में आते है। अर्थ कहाँ छुपा है, एक वाक्य की स्पष्ट व्याख्या में ? या आज़ाद व्याख्या में ? क्या कविता वाक्यों से सवाल पूछा करती है? या उन्हें उदहारण देती है? अगर मुक्तिबोध ट्रैफिक सिग्नल लिखते होते तो शायद शहर में बवाल मच जाता मगर वो आत्मा की अभिव्यक्ति करते थे, आत्मा की अभिव्यक्ति स्पष्ट कैसे हो सकती है ? अँधेरे में कविता को न जाने कितने साल कितनी बार दोबारा लिखा होगा। जो आज हम पढ़ते है शायद वो ‘अँधेरे में’ ही नहीं है जो मुक्तिबोध ने कितने रातों के अँधेरों में लिखी होगी। तीसरे भाग में, महात्मा गांधी का भूत नायक को कविता में दिखता है, 1960 का भारत में लोकतंत्र, एक विचित्र दौर से गुज़र रहा था, आज़ादी ने बस रुख से भारत को आज़ाद किया था। बाकी सारी सामाजिक बीमारियाँ (जातिवाद, धर्मवाद, गरीबी, बेरोज़गारी), 1960 में भी वैसे ही दृढ निष्चय करके बैठी थी। ऐसे में गांधी का भूत हर उस सड़क पर चलते इंसान को महसूस होता था जिसने आज़ाद देश में एक चुनौतीपूर्ण भविष्य का सपना देखा था। और ऐसे कई व्याख्या इस कविता में न सिर्फ पोलिटिकल सवाल खड़े करती है बल्कि सामजिक परिस्थितियों में बदलाव की ज़रूरी मांगें भी रखती है।
न उनकी रचना में कहीं सुर्ख परचम था, न प्रेमिका को प्रेमी लाल रूमाल देता था, न वे उसे लाल चूनर पहनाते थे। वे गहरे अंतर्द्वंद्व और तीव्र सामाजिक अनुभूति के कवि थे। मजे की बात है कि जो निराला की सूक्ष्मता को पकड़ लेते थे, वे भी मुक्तिबोध की सूक्ष्मता को नहीं पकड़ते थे।
हरशंकर परसाई, मुक्तिबोध एक संस्करण, का उद्धरण।
मुक्तिबोध बस इतना ही तो करते है कि व्यवस्था और जीवन के खटगार से बंधे बेतहाशा दौड़ते बदहवास व्यक्ति को बाँहें फैलाकर थाम लेते है और ले चलते है मन के उन बीहड़ निर्जन भूतहे अंधेरों की ओर जहाँ से पीठ मोड़कर उजालों की तलाश में अपने से दूर होता चलता है व्यक्ति। मुक्तिबोध एक गहन अंतर्दृष्टि और गगनभेदी दूरदृष्टि के साथ टकराव की अनिवार्य स्थिति का अतिक्रमड़ करते है। सिर्फ विश्लेषण नहीं, संश्लेषण भी।
प्रतिनिधि कहानियों की भूमिका में रोहिणी अग्रवाल के शब्द।
मैं एक गहरी सांस भरता हूं और उसे धीरे धीरे छोड़ता हूं। मुझे हृदय रोग हो गया है — गुस्से का, क्षोभ का, खीझ का और अविवेकपूर्ण कुछ भी कर डालने की राक्षसी क्षमता का। आदमियता सब जगह है, इंसानियत का ठेका मैंने ही लिया है । मेरे मस्तिष्क का चक्र घुमा। पवलोव ने ठीक कहा था “कंडीशंड रिफ्लेक्स”।ख्याल भी रिफ्लेक्स एक्शन ही तो है।
मुक्तिबोध की कहानी “समझौता” से।
आज कल अगर कोई भी हिंदी साहित्य को उठाकर पढ़ना चाहे तो व इलाहबाद से होकर गुज़रेगा।”, दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी की वरिष्ठ प्रोफेसर, डॉ कुसुमलता ने मुझे बताया।
उन्होंने कहा, “नयी कविता और प्रयोगवादी कवियों के उदार रुख देखकर आज का स्याना लिबरल व्यक्ति जो सोशल मीडिया पर अपने विचार रखकर खुश होता है, उसके न समझी उदार रुख में कई मतभेद है। यह लोग केवल बुरा महसूस करना जानते है, ज़िम्मेदारी लेकर व्यवस्था को बदलना नही। मुक्तिबोध इसके विपरीत थे।”
आज से साठ साल पहले ये कलाकार मार्क्सवाद, पूँजीवाद के डरावने उधारण और लोकतंत्र के टूटे फूटे सपनों को अपने कविताओं के अंदर निडर रूप से रखते थे। उनको पढ़कर हम उस दशक के संघर्षों का बहुत अच्छा अंदाज़ा लगा सकते है।
उन दिनों उनकी पुस्तक ‘भारत : इतिहास और संस्कृति’ पर प्रतिबंध लग चुका था। वह पुस्तक कोर्स में लग चुकी थी। उसके ख़िलाफ़ आंदोलन करानेवाले मुख्यत: दूसरे प्रकाशक थे। आंदोलन में जनसंघ प्रमुख था। मुक्तिबोध की आजीवन आर्थिक परिस्थिति बहुत कमज़ोर और नाजुक थी, इस पुस्तक के प्रकाशन से, उनकी परिस्थिति बहुत बेहतर हो सकती थी। हमारे समाज की खेदजनक विचारधारा इस बात से झलकती है कि आजीवन मुक्तिबोध की कोई भी कविता कभी किताबों में प्रकाशित नहीं हुई। और आज उन्हें नयी कविता के दौर का प्रमुख कवि माना जाता है।
मेरी मुक्तिबोध से मुलाक़ात उनकी कविता ब्रह्मराक्षस से हुई थी। ब्रह्मराक्षस यु.पी.एस.सी. के पाठ्यक्रम में भी पढ़ाई जाती है। अब आगे इस कविता के कुछ भाग पढ़िए।
शहर के उस ओर खंडहर की तरफ
परित्यक्त सूनी बावड़ी
के भीतरी
ठन्डे अँधेरे में
बसी गहराइयाँ जल की
सीढ़ियां डूबीं अनेकों
उस पुरानी घिरे पानी में
समझ में आ न सकता हो
कि जैसे बात का आधार
लेकिन बात गहरी हो।ये गरजती गूंजती आन्दोलिता
गहराइयों से उठ रही ध्वनियाँ, अतः
उद्भ्रांत शब्दों के नए आवर्त में
हर शब्द निज प्रति शब्द को भी काटता,
वह रूप अपने बिम्ब से ही जूझ
विकृताकार कृति ,
है बन रहा
ध्वनि लड़ रही अपनी प्रतिध्वनि से यहाँ।वह ज्योति अनजानी सदा को सो गयी
यह क्या हुआ !
क्यों यह हुआ !!
मैं ब्रह्मराक्षस का सजल -उर शिष्य
होना चाहता
जिससे कि उसका वह अधूरा कार्य,
उसकी वेदना का स्त्रोत
संगत, पूर्ण निष्कर्षों तलक
पहुंचा सकूँ ।
मैं आपके विचार जानने के लिए उत्सुक हूँ। आपको ये लेखन पढ़कर जो भी लगा, मुझे ज़रूर बताए।